Sunday, May 24, 2020

शिक्षक और उनकी डायरी

शिवरतन थानवी को नयी पीढ़ी के पाठक और लेखक शायद उतना नहीं जानते। वे राजस्थान के एक छोटे से कस्बे फलोदी में रहते थे। साहित्य और शिक्षा जगत में उनकी पहचान ऐसे व्यक्ति के रूप में है जिन्होंने शिक्षा की वास्तविक चिंताओं को लोगों की चिंताएं बनाने में अपना जीवन लगा दिया। राजस्थान में स्कूली शिक्षा के अध्यापक के रूप में अपना सफर प्रारम्भ कर उन्होंने शिक्षा विषयक लेखन को अपने लिए चुना। यह वह दौर था जब राजस्थान में बहुत कम पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन होता था। उनकी रुचियों और अध्यवसाय की गंभीरता के चलते राजस्थान सरकार ने उन्हें शिक्षा विभाग राजस्थान के मुख पत्र 'शिविरा पत्रिका' का सम्पादक मुख पत्र बना दिया। साथ ही माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान के द्विभाषी त्रैमासिक जर्नल 'नया शिक्षक/टीचर्स टुडे' का सम्पादन भी उन्हें सौंप दिया गया। विभागीय पत्रिकाओं की राजकीय सीमाओं के बावजद थानवी जी ने दो ऐसे काम किये जिनके कारण उन्हें राज्य में ही नहीं अपितु देश भर में सम्मान मिला। पहला यह कि नए और प्रतिष्ठित लेखकों से इन पत्रिकाओं में लिखवाना प्रारम्भ किया और दसरा यह कि कायदे से तैयार की गई सामग्री के कारण मासिक 'शिविरा पत्रिका' का हर अंक संग्रहणीय बनता गया।



शिक्षा विषयक अनेक पस्तकों का लेखन भी उन्होंने किया तो वे जीवन भर सजग और सरुचिवान पाठक बने रहे। हिंटी साहित्य की शायद ही कोई पत्रिका हो जिसे वैन पढ़ते हों। पढ़कर पत्र लिखना भी उनके स्वभ पाव का अंग था। पिछले दिनों नों उनकी डायरी 'जग दर्शन का मेला' का प्रकाशन हआ और इसके कछ ही दिनों बाद उन नधन हो गया की इच्छानसार कर्मकांडों को त्यागकर उनका देहदान किया गया। हिंदी के संसार में जिन विधाओं ने इधर फिर अपने को पुनर्नवा किया है उनमें संस्मरणों और यात्रा आख्यानों के साथ डायरी प्रमुख है। इस नए दौर में मलयज की डायरी ने बहुत प्रसिद्धि अर्जित की थी लकिन उसका कारण डायरी विधा न होकर मलयज की आलोचना के प्रस्थान बिंदुओं की तलाश अधिक था। राजकमल प्रकाशन न शिक्षक, सम्पादक आर लेखक शिवरतन थानवी की डायरी छापी है। 'जग दर्शन का मला शाषक का यह डायरी हमें थानवी जी की डायरी के पचास से भी अधिक सालों के चुन हुए कुछ पन्ना को पढ़ने का न्योता देती हैं। इन पन्नों में शिक्षा, पुस्तकें, लोग-बाग, गोष्ठियां, दिनचर्या, घर-परिवार, श्रद्धांजलियां और घटनाएं हैं। जाहिर है सकड़ा पन्ना म स चुनकर यह पुस्तक तयार हुइ है जो साधारण शिक्षक की असाधारण यात्रा से पाठक को जोड़ती है। शिवरतन थानवा राजस्थान म स्कूल शिक्षक रहे और वहां शिक्षा विभाग से दो पत्रिकाओं सम्भाला। फिर जीवन भर पढ़ते रहे और संसार को देखते-समझते रहे। फिर भी यह यात्रा असाधारण है क्योंकि संसार को थानवी जी की निगाह से देखना हमें समृद्ध करता है और अपने काम में डूबने के लिए नयी प्रेरणा उपस्थित करता है।


प्रेरणा शिक्षा और शिक्षा व्यवस्था पर उनके अनभव गहरे और काम के हैं। एक जगह वे लिखते हैं-'हमने हिम्मत नहीं की। हम रूढ़ियों से डरते रहे। हम पंडितों से-सुस्त • पंडितों से और सुस्त समाज से डरते रहे। हमने नई परम्परा डालने की हिम्मत नहीं की। माँ-बाप को और शिक्षक को निर्भय .और दृष्टिवान बनाने की कोशिश ही नहीं की। रूढ़ियों से भिड़ने का उनका हौंसला निजी प्रसंगों में भी दिखाई देता है जिससे पाठक को आश्वस्ति होती है कि यह कोरा उपदेश वाला मामला न होकर थानवी जी के लिए जीवन मूल्य है। उनका दृढ़ मत है कि 'शिक्षा परीक्षा केंद्रित नहीं होनी चाहिए।' उन्होंने एक अन्य प्रसंग में लिखा है‘परीक्षा के मौजूदा ढांचे को बदलना है तो हिम्मत से काम लेना पड़ेगा। हिम्मत चाहिए यह कहने की कि बच्चे की योग्यता को . देखने के लिए (अर्थात परीक्षा के लिए) किसी बाहरी आँख की जरूरत नहीं है। बच्चा खुद, माँ-बाप खुद और विद्यालय का मामूली से मामूली बद्धि वाला शिक्षक भी खुद पलक झपकते जान जाएगा कि बच्चा कितना आगे बढा है और कितना अभी आगे बढ़ना बाकी है। उस अवस्था की तरफ बढ़ने का क्या कभी हम साहस कर सकेंगे तभी सच्ची शिक्षा का जन्म होगा।' यह ठोस मल्यों से उपजा नैतिक साहस है। यह उस शिक्षक के मार्फत आया है जिसका निर्माण गांधीवादी मल्यों से हुआ है और जो जमीनी यथार्थ को खब देखता-जानता है। श्री श्री रविशंकर के एक बयान की, सरकारी स्कूलों में पढ़े बच्चे नक्सलवाद और हिंसा के मार्ग पर चले जाते हैं उन्होंने खब खबर ली है। उन्होंने लिखा-'भारतीय समाज के बारे में उनकी जानकारी निश्चित ही अधकचरी है। ...क्या कोई शिक्षित व्यक्ति सपने में भी ऐसा सोना भूल गए कि शिक्षा भी होती है? सरकारी हो से खराब या कच्ची से कबिना आदर्श के हो ही का नाम लेकर भले कोई उन T या कुफ्र करने वाले का तोमा सोच सकता है? क्या वे कि शिक्षा भी कभी आदर्शरहित सरकारी हो या गैर-सरकारी, खराब या कच्ची से कच्ची, शिक्षा कभी र्ण के हो ही नहीं सकती। 'आदर्श' लेकर भले कोई उन्हें विधी या मी से घणा या हिंसा करना सिखा दे, काम करने वाले का कत्ल करना ही है. सरकारी स्कूलों में ऐसा 'आदर्श' सिखाया जाता है। वहां वैज्ञानिक दृष्टि और विवेक पर बल दिया जाता है। मति-असहमति दोनों की आजादी होती प्रतिपक्ष में भी रहना-सहना सिखाया जाता है। क्या यह बुरा है?' अनेक प्रसंगों शिक्षकों की जमीनी दिक्कतों का उल्लेख है तो शिक्षाशास्त्र से सम्बंधित देशी निदेशी विद्वानों की बहसों, किताबों और फिल्मों का उल्लेख चकित करता है कि एक साधारण शिक्षक अपने पेशे के लिए कितनी गहराई और व्यापकता के जतन कर सकता है। वे शिक्षा सम्बन्धी गोष्ठियों में से भी बारीक बातें चुनकर पाठकों को बता देते हैं तो भारतीय भाषाओं में शिक्षा सम्बन्धी प्रयोगों की भी भरपूर जानकारी उनके पास है।


अज्ञेय, नामवर सिंह, बिज्जी, डॉ. छगन मोहता, प्रभाष जोशी, शिक्षाविद अनिल बोर्दिया, केदारनाथ सिंह सहित अनेक लोगों से हुई मुलाकातों के उल्लेख हैं और - दिलचस्प यह है कि थानवी डायरी में इन सबका उल्लेख भर करते हैं इन्हें किसी उपलब्धि की तरह नहीं टांकते। संपर्क में आए साधारण-मामूली लोगों के बारे में भी बात करते हुए यह भाव नहीं आने देते कि कसा पर उपकार कर रहे हैं। अपनी दोहित्री लखते हुए उनका दर्द दुर्लभ है। उनकी माता देखिए-'मुझे रोना इस बात पर या कि इतने बार्स हमारे सम्पर्क में १, इतना पढ़ते हुए भी नाराजगी को ना का रूप क्यों नहीं दे पाती है? बोलकर नहा कि वह नाराज क्यों हैं. " किस बात पर। दिन भर आज का बड़ा दुःख रहा। अपनी पढ़ी अनेक पुस्तकों पर टिप्पणियाँ करते हैं तो टीवी पर देखे कार्यक्रमों को भी पूरी विवेचना करते हैं। वे डा. एम बालमरली कष्ण को सुनते हुए संस्कृत न सीख पाने पर अफसोस कर सकते हैं तो किसी कति को पढकर 'जी खराब हो जाने की बात भी नहीं छिपाते। उन्होंने लिखा है--'आँगन के पार द्वार पर सामानांतर में डा. रमेश चंद्र शाह का विवेचन पढ़ा तो जी खराब हो गया। अपने विशद अध्ययन का प्रभाव देने के लिए जगह जगह विदेशी कवियों को उद्धत करते चल गए हैं। अज्ञेय के संग्रह पर आनंद देने वाली कोई टिप्पणी लेख में नहीं मिलेगी। शाह जी ने पहले भी कई बार निराश किया है, आज फिर किया। 


निराश किया है, आज फिर किया। अध्यापक थानवी से जो बात सबसे पहले सीखने योग्य है वह है गंभीर पाठक होना। एक जगह उन्होंने लिखा है कि मासिक वेतन 42 रुपये में से 9 रुपये वे पत्रिकाओं के लिए खर्च कर देते थे। इधर वे साहित्य और समाचार की अनेक पत्रिकाओं को निरंतर पढ़ते हुए उनके सम्बन्ध में आवश्यक टीप लिखते हैं। लेखकों-प्रकाशकों को शिक्षा देने (सबक सीखाने के अर्थ में नहीं) के प्रसंग में वे त्रुटियां बताने को गलत नहीं मानते। इस डायरी में घर परिवार के कुछ आत्मीय प्रसंग भी आए हैं तो अपने दाम्पत्य जीवन पर लिखा एक पन्ना लगभग विस्मित करने वाला है जहाँ जीवन राग का अत्यंत कोमल और हृदयस्पर्शी चित्र उन्होंने खींच दिया है। इस पन्ने के कुछ अंश उद्धृत न करना अपराध ही होगा। हुआ यह कि टीवी पर गीत आया-'आ जा पिया तुझे प्यार दें. गोरी बइयाँ तो पे वार +। इसे सुनकर थानवी जी की पत्नी ने नजरें झुका लीं। थानवी जी की समझ है--‘एमी परम्परित रिवाजों में जकड़ी हैं शादी के इक्यावन वर्षों के बाद भी। मैं चाहता हूँ वे अब तो खुलें। वे हैं कि बन्द की बन्द।' अब वे पत्नी से बोले-'सुनो, इससे नया जीवन मिलता है। एक-दो मिनट ही सही। जीवन तो मिलता है। मुझे वह नया जीवन क्यों नहीं मिलेगा? रोज कहा करता हूँ समझ लो यह जिंदगी तीस सैकिंड की है। लो आनंदमय बनने में, आनंदमय रहने में, और मुझ सहित सबको, घर-बाहर आनंदमय रखने में देर क्यों। ये तीस सैकिंड गँवाएँ नहीं।' अंत में उनकी टिप्पणी है-'प्यार में अब भी शरमाना, नकली या असली. कैसा बहुआ कि तब हुआ। इन्हीं नहीं। अंत में उनका अब भी शरमाना, नकला या भी. उससे दिल को ऐसा झटका ल कि प्राणान्त अब हुआ कि तब हुआको मैं जीवन भरे तीस सकिड कहता । जीवन और मृत्यु के बीच यहा फासला प्रकति के प्रति उनका औत्सुक्य देखत हा बनता है तो समची डायरी उनकी गहरा प्रश्नाकलता को दर्शाती है। जगह जगह पेड़ों को देखना, उनके नाम जानना या वनस्पति के अन्य अन्य रूपों की बात करना डायरीकार को प्रिय है। डायरी को किसी कशल सम्पादक ने तैयार किया है हालांकि इसका उल्लेख कहीं नहीं है। तारीखें सिलसिलेवार नहीं हैं। लेखक ने भूमिका म कह जो दिया है--'इनका क्रम कुछ उलझा हुआ है। जैसे जीवन।'


।' क्या एक अध्यापक को ऐसा ही नहीं होना चाहिए जिसकी रुचियाँ व्यापक हों और जो कहीं से भी सीखने-जानने में हेठी न समझता हो। अंत में अध्यापक शिवरतन थानवी के बनने की कथा उन्हीं के द्वारा सुन लें-'शिक्षा बिना न हमें हमारे अज्ञान से मुक्ति मिल सकती है, न ज्ञान के अहंकार से मुक्ति मिल सकती है। मैं अपना उदाहरण दूं। जब दयानन्द सरस्वती, प्रेमचन्द और गांधीजी को पढ़ा तो एक मोड़ आया। देवेन्द्र सत्यार्थी और वासुदेव शरण अग्रवाल को पढ़ा तो दूसरा मोड़ आया। लेकिन राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक 'तुम्हारी क्षय हो' पढ़ते ही बहुत बड़ा मोड़ आ गया। मेरी तमाम कट्टरता-संकीर्णता जाती रही। चेतना में नई खिड़कियाँ खुलने लगीं। ज्ञात होने लगा कि कितना भी जान लो, जानने को बहुत बाकी बचा रहता है और नए को पाने के लिए कुछ पुराना छोड़ना पड़ता है। 


के लिए कुछ पुराना छोड़ना पड़ता है। . कहना न होगा कि यह डायरी केवल शिक्षक-मनुष्य शिवरतन थानवी की दास्तान नहीं सुनाती अपितु पिछले पचास वर्षों के भारतीय जीवन और समाज पर गंभीर टिप्पणियां करती है। अपने और समाज को ईमानदारी से लिखने की यह कला इस डायरी को मूल्यवान बनाती है।


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